dsandesh: विलुप्त होती जा रहा है फगुआ गीत,फीका हो रहा फागुनी रंग...
सोनभद्र। वसन्त ऋतु साल की एक ऐसी ऋतु है जिसमें वातावरण का तापमान प्रायः सुखद रहता है। भारत में यह फरवरी से मार्च तक होता है। इस ऋतु की विशेषता है मौसम का गरम होना,फूलों का खिलना और पौधो का हरा भरा होना। इसे एक सन्तुलित मौसम भी कह सकते हैं। इस मौसम में चारो ओर हरियाली छाई रहती है। पेड़ों पर नये पत्ते उग आते है। इसी माह में भारत का एक मुख्य त्योहार होली जो वसन्त ऋतु में ही मनाया जाता है। हम बात कर रहे है उस गवाई फगुआ लोकगीत का जो होली के अवसर पर गाया जाने वाला एक प्रमुख गीत है। यह मूल रूप से उत्तर प्रदेश का लोकगीत है पर सीमाई प्रदेशों में भी इसको गाया जाता रहा है। सामान्य रूप से होली खेलने,प्रति की सुंदरता और राधा कृष्ण, के प्रेम का वर्णन होता है। राम सीता की महिमा, शिव पार्वती की वर्णन पूरे परिवार के लोग एक साथ गाते बजाते थे। गांव में फगुआ व फागुन गीत गाते शास्त्रीय संगीत तथा उपशास्त्रीय संगीत के रूप में भी गाया जाता है। आदिकाल में जब भी इसकी शुरुआत हुई होगी इसका उद्देश्य समाज के नैतिक मूल्यों के उत्थान के लिए हुआ होगा। अब तो गांव में भी ये सब कम होने लगा है। फगुआ,डेढ़ ताल,चौताल जैसी कई विधाएं होली में गाई जाती थी। पहले से ही तय हो जाता था कि कितने घंटे किसके घर गीत गाया जाएगा। इन गीतों में होली का उल्लास और फागुन की मस्ती के साथ-साथ माटी से जुड़ाव का भाव भी रहता था। इनमें फाग,धमार,चौताल, कबीरा,जोगीरा,उलारा व बेलार जैसे गीत शामिल होते थे। इस अवसर पर गाए जाने वाले धमार के बोल "एक नींद सोये दा बलमुआ आंख भईल लाले लाल" फागुनी मस्ती से सराबोर करने के लिए काफी थे। इसी तरह से फगुआ चौताल के गीत "बाजी रही पैजनिया छमा छम बज रहे पैजनिया"
इसी तरह कई विधाओं में कई प्रकार के होली गीत होते थे जैसे "होली खेले रघु बीरा अवध में होली खेते रघु बीरा"जो अपने धर्म और माटी का एहसास कराते थे। अब रीमिक्स के जमाने में पारंपरिक होली गीत गाने वाले गायक कम ही बचे हैं।या यूं कहिए कि यह अब विलुप्त होने लगा है। इस लोकगीत पर कभी चढ़ा फागुन का रंग भी फीका पड़ता जा रहा है। पर आज फाग लोकगीत को जो लोग संजोये हैं वे सब साधुवाद के पात्र हैं।